सातवाँ अध्याय

 

 भग सविता, आनन्दोपभोक्ता

 

ऋग्वेद; मण्डल 5, सूक्त 82

 

तत् सवितुर्वृणीमहे वयं देवस्य भोजनम् ।

श्रेष्ठं सर्वधातमं  तुरं भगस्य धीमहि ।।1।।

 

(सवितु: देवस्य) सविता देवके (तत् भोजनम्) उस आनंदोपभोगको (वयं वृणीमहे) हम वरते हैं (श्रेष्ठम्) जो सर्वश्रेष्ठ है, (सर्वधातमम्) सबको समुचित रूपसे व्यवस्थापित करनेवाला हैं (तुरं) लक्ष्यपर पहुँचाने-वाला है, (भगस्य) भगके उस आनंदको (धीमहि) हम विचार द्वारा ग्रहण करते हैं ।।1।।

 

अस्य हि स्वयशस्तरम् सवितुः कच्चन प्रियम् ।

न मिनन्ति स्वराज्यम् ।।2|

 

(हि) क्योंकि (अस्य [भगस्य] सवितुः) इस आनंदोपभोक्ता सविताके (कच्चन प्रियं) 'किसी भी वस्तुके सुखको (न मिनन्ति) वे क्षीण नहीं कर सकते, (स्वयशस्तरम्) क्योंकि यह अत्यंत आत्मविजयशील है, (न स्वराज्यम्) न ही वे उसके स्वराज्यको (क्षीण कर सकते हैं) ।।2||

 

स हि रत्नानि दाशुषे सुवाति सविता भग: ।

तं भागं चित्रमीमहे ।।3।।

 

(स हि) वह ही (दाशुषे) उत्सर्ग करनेवालेके लिये (रत्नानि सुवाति) आनंदोंको प्रेरित करता हैं ( [ स: ] सविता भग:) वह ऐसा भग-देव है जो वस्तुओंका उत्पादक है; (तं चित्रं भागम्) उसके उस विविध ऐश्वर्यो-पभोगको (ईमहे) हम चाहते हैं ।।3।।

 

अद्या नो देव सवित:  प्रजावत् सावी: सौभगम् ।

परा दुःष्वप्न्यं सुव ।।4।।

 

(अद्य) आज (देव सवित:) हे दिव्य रचयिता ! (न:) हमपर (प्रजावत् सौभगम्) फलयुक्त आनंदको (सावी:) प्रेरित कर, (दुःष्वप्न्यम्) जो कुछ भी दुःस्वप्नसे संबंध रखता है उसे (परासुव) दूर कर ।।4।।

 

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव ।

यद् भद्रं तन्न आ सुव ।।5।।

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(विश्वानि दुरितानि) सब बुराइयोंको (देव सवितः) हे दिव्य रचयिता, तू (परासुव) दूर कर दे, (यद् भद्रं) जो श्रेयस्कर है (तत्) उसे (नः आसुव) हमपर प्रेरित कर ।।5।।

 

अनागसो अदितये देवस्य सवितु: सवे ।

विश्वा वामानि धीमहि ।।6।।

 

(अदितये) असीम सत्ताके लिये (अनागस:) निर्दोष होकर हम (देवस्य सवितु: सवे) दिव्य रचयितासे होनेवाले सवमें (विश्वा वामानि) आनंदकी सब वस्तुओंको (धीमहि) विचार द्वारा ग्रहण करते हैं ।|6|

 

आ विश्वदेवं सत्पतिं सूक्तैरद्या वणीमहे ।

सत्यसवं सवितारम् ।।7।।

 

(विश्वदेवम्) विश्वव्यापी देव (सत्पतिम्) और सत्ताके अधिपतिको (सूक्तै:) पूर्ण शब्दोंके द्वारा (अद्य आवृणीमहे) आज हम अपने अंदर स्वीकार करते हैं (सत्यसवं सवितारम्) उस रचयिताको जिसकी रचना सत्यमय है ।।7।।

 

य इमे उभे अहनी पुर एत्यप्रयुच्छन्

स्थाधीर्देव: सविता ।।8|

 

(य: देव: सविता) जो दिव्य रचयिता (अप्रयुच्छन्) कभी स्खलनको प्राप्त न होता हुआ, (स्वाधी:) अपने विचारको उचित प्रकारसे स्थापित करता हुआ (इमे उभे अहनी) इन दिन और रात दोनोंके (पुर: एति) सम्मुख जाता है ।।8|

 

य इमा विश्वा जातान्याश्रावयति श्लोकेन ।

प्र च सुवाति सविता ।|9।।

 

(: सविता) जो रचयिता (श्लोकेन) लयके साथ (इमा विश्वानि जातानि) इन सब प्रजाओंको (आश्रावयति) ज्ञानमें श्रवण कराता है (प्रसुवाति च) और इन्हें उत्पन्न कर देता है ।।9।।

 

 भाष्य

 

चार महान् देव वेदमें सर्वत्र अपने स्वरूप और कार्यमें निकटतया संबद्ध दिखायी देते हैं' वे हैं वरुण, मित्र, भग, अर्यमा । वरुण और मित्र, ऋषियोंके विचारोंमें सदा युगलरूपमें जुड़ गये हैं, कहीं-कहीं वरुण, मित्र और भग अथवा वरुण, मित्र और अर्यमाका एक त्रैत भी दृष्टिगोचर होता है । ऐसे सूक्त अपेक्षाकृत बहुत कम हैं जो इनमेसे किसी एक देवको पृथक् रूपमें संबोधित किये गये हों, यद्यपि कुछ ऐसे, महत्त्वपूर्ण सूक्त भी

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अवश्य हैं जिनका देवता वरुण है । पर ऐसी ऋचाएँ जिनमें इन देवोंके नाम आ जाते हैं, वे ऋचाएँ चाहे अन्य किन्हीं देवोंकी हों या 'विश्वेदेवा:'के आवाहनमें हों, संख्यामें किसी भी प्रकार कम नहीं हैं ।

 

ये चारों देवता, सायणके अनुसार, सौर शक्तियाँ हैं वरुण सूर्यका अभावात्मक रूप है और इस प्रकार रात्रिका देवता है, मित्र भावात्मक रूप होनेसे दिनका देवता है, भग और अर्यमा सूर्यके नाम हैं । इन विशेष प्रकारकी तद्रूपताओंको अघिक महत्ता देनेकी आवश्यकता नहीं, पर इतना तो निश्चित है कि इन चारों देवोंको कोई सौर धर्म ही परस्पर जोड़ता है । वैदिक देवोंका यह विशेष स्वरूप कि वे अपने व्यक्तित्वों तथा व्यापारों तकमें विभिन्न होते हुए भी वास्तविक एकता रखते हैं, इन चार देवोंके विषयमें विशेष तौरसे प्रकाशमें आ जाता है । ये चारों अपने-आपमें केवल घनिष्ठताके साथ संबद्ध ही नहीं हैं, परंतु एक दूसरेके स्वभाव और 'धर्मोमें भागी होते हुए भी दिखायी देते हैं और ये सब स्पष्टत: सूर्य सविताकी अंशविभूतियाँ हैं और सूर्य सविता है अपने रचनात्मक और प्रकाशक सौर रूपोंवाली दिव्य सत्ता ।

 

सविता सूर्य रचयिता है । सब लोक, वस्तुओंके सत्यके अनुसार ॠतम्के अनुरूप, दिव्य चेतनासे, उस अदितिसे, पैदा हुए हैं जो असीम सत्ताकी देवी है, देवोंकी माता हैं, अविभाज्य चेतना है, ऐसी ज्योति है जो क्षीण नहीं हो सकती, जो वध न की जा सकनेवाली रहस्यमयी गौके प्रतीकसे निरूपित हुई है । उस रचनामें वरुण और मित्र, अर्यमा और भग ये चार कार्यनिर्वाहक बल हैं, देवता हैं । वरूण द्योतक है विशुद्ध और बृहत् सत्ताके तत्त्वका, सच्चिदानंदके सत्का; अर्यमा द्योतक है दिव्य चेतनाके एक ऐसे प्रकाशका जो शक्तिके रूपमें कार्य करता है; मित्र प्रकाश और ज्ञानका द्योतक होता हुआ, रचनाके लिये आनंदके तत्त्वका उपयोग करता हुआ, वह प्रेम है जो समस्वरताके नियमको स्थापित रखता हैं; भग द्योतक है रचनाजन्य सुख-रूपी आनंदका, वह रचनाके आनंदका उपभोग करता हैं, जो कुछ विरचित हुआ है उस सबका आनंद लेता है । वरुणकी, मित्रकी माया, उत्पादक प्रज्ञा ही अदितिके उस प्रकाशको विविध प्रकारसे विनियुक्त करती है जो उषा द्वारा लोकोंको अभिव्यक्त करनेके लिये लाया जाता है ।

 

अपने आध्यात्मिक व्यापारमें भी ये चारों देव मानव-मनमें, मानव स्वभावमें कार्य कर रहे उपर्युक्त चार तत्त्वोंके ही द्योतक होते हैं । ये मनुष्यके अंदर उसकी सत्ताके विभिन्न स्तरोंको रचते हैं और उन्हें अंतमें

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दिव्य सत्यके रूपों और वृत्तियोंमें ढाल देते हैं । विशेषतया मित्र और वरुण तो निरंतर इस रूपमें वर्णित हुए हैं कि वे अपने कर्मके नियमको दृढ़तासे धारण करते हैं, सत्यको बढ़ाते हैं, सत्यका स्पर्श करते हैं और उस सत्य द्वारा दिव्य संकल्पकी विशालताका या उसके महान् और असंबाधित यज्ञिय कर्मका आनंद लेते हैं । वरुण द्योतक है विशालता, सत्य और पवित्रताका, प्रत्येक वस्तु जो सत्यसे, पवित्रतासे, च्युत हो जाती है, वरुणकी सत्तासे परावृत्त हो जाती है और अपराधीको उसके पापके दण्डस्वरूप आघात पहुँचाती हैं । जबतक मनुष्य वरुणके सत्यकी विशालताको नहीं पा लेता, तबतक वह यज्ञ-पशुके रूपमें विश्वयज्ञके स्तंभोंमें मन, प्राण और शरीरके त्रिविध बंधनोंसे बँधा रहता है और स्वामी या उपभोक्ताके तौरपर मुक्त नहीं हो पाता । इसीलिये ऐसी प्रार्थनाएँ बहुत-सी मिलती है कि हम वरुणके पाशसे, उसकी पवित्रताके प्रति किये गये अपराधसे उत्पन्न उसके रोषसे, मुक्त हो जायँ । दूसरी तरफ मित्र देवोंमें सबसे अधिक प्रिय है; वह अपनी समस्वरताकी स्थिरताओं द्वारा, वस्तुओंके विधानमें अपने-आपको चरितार्थ करनेवाले प्रेमके उत्तरोत्तर प्रकाशमान धामों द्वारा, मित्रस्य धामभि:,  सबको .एक सूत्रमें बाँध देता है । उसका नाम 'मित्र', जिसका अर्थ सखा भी. हैं, सतत रूपसे द्वचर्थक रूपमें प्रयुक्त किया गया है, मित्र-रूप होनेके नाते ही अन्य देव भी मनुष्यके मित्र ( सखा) बन जाते हैं, क्योंकि मित्र देव उन सबके अंदर निवास करता हैं । अर्यमाके व्यक्तित्वकी स्पष्ट भिन्नता वेदमें बहुत कम दिखायी देती है, क्योंकि उसका निर्देश करनेवाले स्थल स्वल्प ही हैं । भगके व्यापार अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट रूपमें निर्दिष्ट हुए हैं, और वे बाहर विश्वमें तथा मनुष्यके अंदर दोनों जगह एक-से हैं ।

 

सविताको कहे गये श्यावाश्वके इस सूक्तमें हमें दोनों बातें मिलती हैं, भगके व्यापार और सविता सूर्यके साथ उसकी एकता; क्योंकि सूक्त सम्बोधित तो किया गया है सूर्यको, सत्यके रचनाकारक देवको, पर सूर्य यहाँ विशेष तौरसे भग, आनंदोपभोगके देवताके रूपमे आया है । भग शब्दका अर्थ है उपभोग या आनन्दोपभोक्ता और यहीं अर्थ इस देव-नाम 'भग'का उचित आशय है यह बात इसी सूक्तकी ऋचाओंमें 'भोजनम्', 'भाग', 'सौभगम्'के प्रयोगसे और भी दृढ़तापूर्वक द्योतित कर दी गयी है । हम देख चुके हैं कि सविताका अर्थ रचयिता है, पर रचनाका मतलब यहाँ विशेषतया उत्पन्न करना, अव्यक्तावस्थासे प्रेरित कर व निकाल करके व्यक्तावस्थामें लाना है । सारे सूक्तमें सतत रूपसे शब्दके इसी धात्वर्थको

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लेकर सारी रचना की गयी है, जिसे अनुवादमें पूरे तौरसे ला सकना असम्भव है । पहली ही ऋचामें इस प्रकारका एक गूढ़ प्रयोग है, क्योकि 'भोजनम्'के दोनों अर्थ हैं उपभोग ( आनदोपभोग) और खाद्य सामग्री । और यहाँ यह आशय देना अभिप्रेत प्रतीत होता है कि 'सविताका उपभोग' सोम है, जो देवोंका भोजन है, परम रस है, महान् उत्पादककी सर्वोच्च उत्पादित वस्तु है ( सोम भी उसी 'षु' घातुसे बना है जिससे सविता और इसका अर्थ है उत्पन्न करना निचोड़ना, रस क्षरित करना) । जो कुछ ऋषि चाहता है वह यह है कि वह सब विरचित वस्तुओंमें अमृतका और अमृतकारक आनंदका आस्वादन कर सके ।

 

यही आनंद रचयिताका, सूर्य सविताका उपर्युक्त उपभोग है, सत्यका सर्वोच्च पारिणाम है; क्योंकि सत्यका इस रूपमें अनुसरण किया जाता है कि वह दिव्य आनंदकी प्राप्तिका मार्ग है । यह आनंद सर्वोच्च, सर्वोकृष्ट उपभोग है । यह सबको समुचित रूपसे व्यवस्थित कर देता है, क्योंकि एक बार जब आनंद, सब वस्तुओंमें निहित दिव्य आनंद, प्राप्त हो जाता है तब यह सब विकृतियोंको, जगत्की सब बुराईको, ठीक कर देता है । यह मार्गकी सब बाधा हटाकर मनुष्यको लक्ष्यपर पहुँचा देता हैं । यदि वस्तुओंके सत्य और औचित्य (सत्य और ऋत) द्धारा हम आनंदको पा लते हैं तो साथ ही आनंद द्वारा हम वस्तुओंके औचित्य और सत्यको भी पा सकते हैं । सब वस्तुओंके दिव्य तथा उचित आनंदको प्राप्त कर लेनेकी यह मानवीय क्षमता भग नाम व स्वरूपवाले दिव्य रचयितासे ही संबंध रखती है । जब वह 'भग' मनुष्यके मन और हृदय और प्राण ( शक्तियों) और भौतिक सत्ता द्वारा आलिंगित होता है, जब यह दिव्य स्वरूप ( भग) मनुष्य द्वारा अपने अंदर गृहीत किया जाता है, तब जगत्का आनंद अपने-आपको अभिव्यक्त कर देता है । ( मंत्र 1) ।

 

यह दिव्य आनदोपभोक्ता वस्तुओंमें, अपने आनंदके जिस किसी भी पात्र या विषयमें, जिस आनंदको ग्रहण करता है उसे कोई भी सीमित नहीं कर सकता, कोई भी क्षीण नहीं कर सकता, न देव न ही दैत्य, न मित्र न ही शत्रु, न कोई घटित घटना न कोई इन्द्रियानुभव । क्योंकि उसके प्रकाशमान स्वराज्यको, स्वराज्यम्-अर्थात् सत्य-क्रमकी असीम सत्तामें, असीम आनंदमें और विशालताओंमें उसके अपने-आपको पूर्णतया धारित रखनेको, उसके आत्माधिकृत रहनेको-कोई भी क्षीण, सीमित या आहत नहीं कर सकता । ( मंत्र 2)

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इसलिये वही हवि-प्रदाताके लिये सात आनंदों, सप्त रत्नाको प्राप्त कराता है । यह उन्हें हमपर प्रेरित, सुत कर देता है, क्योंकि वे सब जहाँ दिव्य सत्ताके अन्दर हैं वहाँ इस संसारमें भी हैं, वे हमारे अंदर भी हैं और आवश्यकता केवल इस बातकी है कि वे हमारी बाह्य चेतनापर प्रेरित कर दिये जायँ, उत्पन्न कर दिये जायँ । इस सप्तविध आनंदकी समृद्ध और चित्र-विचित्र विपुलता, जो हमारी सत्ताके सभी स्तरोंपर पूर्णता-युक्त रहती है, संपन्न हुए यज्ञमें भग सविताका भाग है अर्थात् उपभोग या हिस्सा है, और यही वह चित्र-विचित्र सम्पत्ति है जिसे ऋषि यज्ञमें दिव्य आनंदोपभोक्ताको स्वीकृत करके अपने और अपने साथियोंके लिये पाना चाहता है । (मंत्र 3)

 

इसके बाद श्यावाश्व भगसे यह प्रार्थना करता है कि वह उसे कृपा करके आज वह आनंद प्रदान कर दे जो फलशून्य न हो बल्कि क्रिया-शीलताके फलोंसे लदा हो, आत्माकी प्रजासे समृद्ध हो, प्रजावत् सौभगम् । आनंद रचनाशील है, 'जन' है अर्थात् वह आनंद है जो जीवनको और विश्वको उत्पन्न करता है; आवश्यकता केवल इस बातकी है कि जो वस्तुएँ हमपर प्रेरित हों वे सत्य द्वारा संकल्पित रचनासे युक्त हों और वह सब जो असत्यसे, दिव्य सत्यके प्रति अज्ञानके कारण पैदा होनेवाले दुःस्वप्नसे संबंध रखता है, दु:ष्यप्न्यम्, दूर हो जाय, हमारी सचेतन सत्तासे निकल जाय । (मंत्र 4)

 

अगली ऋचामें वह दु:ष्वप्न्यम्के आशयको और अधिक स्पष्ट कर देता है । जिसे वह चाहता है कि उसके पाससे दूर हट जाय वह है सब प्रकारकी बुराई, विश्वानि दुरितानि । 'सुवितम्' और 'दुरितम्'का वेदमें शाब्दिक अर्थ हैं 'ठीक चाल' और 'गलत चाल' 'सुवितम्' है विचार और कर्मका सत्य, 'दुरितम्' है भूल या स्खलन, पाप और विप-रीतता । 'सुवितम्' है सुखपूर्ण चलन, परम सु, आनंदका मार्ग; 'दुरितहै विपत्ति एवं कष्ट, भूल और दुश्चलनका सब दुष्परिणाम । जो कुछ भी बुराई है, विश्वानि दुरितानि, उस सबका संबंध उस दुःस्वप्नसे है जिसे हमारे पाससे दूर हटाया जाना है । भग उसे हटाकर उसके स्थानपर हमारे पास उसे भेज देता है जो अच्छा है--भद्रम्, अच्छा इस अर्थमें कि वह परम सुखके अनुकूल है अर्थात् दिव्य उपभोगकी सब शुभ और मंगल-कारी वस्तुएँ, सत्य क्रिया, सत्य रचनाका सुख । (मंत्र 5)

भग सविताकी रचनाको 'सव' कहते हैं । 'सव' शब्दके दो अर्थ हैं, एक तो उत्पत्ति, रचना और दूसरा रसका क्षरण, देवोंको सोमरस अर्पित

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 करना । भग सविताकी रचनामें, उसके पूर्ण और त्रुटि-रहित 'सव' (यज्ञ) में मनुष्य आनंद द्वारा पाप व दोषसे मुक्त होकर, अनागत:, अदितिकी दृष्टिमें निर्दोष हो जाते हैं, स्वतन्त्र आत्माकी अविभक्त और असीम चेतनाके योग्य हो जाते हैं । उस स्वतंत्रताके कारण आनंद उनके अंदर विश्वव्यापी बनने योग्य हो जाता है । वे इस योग्य हो जाते हैं कि अपने विचार द्वारा सभी आनंददायक वस्तुओंको, विश्वा वामानि, ग्रहण कर सकें; क्योंकि 'धीमें, उस प्रज्ञामें खो ग्रहण करनेवाली और क्रमबद्ध करनेवाली है, विश्वका सब उचित क्रम रहता है, उचित संबंधका, उचित प्रयोजनका, उचित प्रयोगका और उचित परिपूर्णताका बोध होता रहता है, सब वस्तुओंके अंदर दिव्य और सुखपूर्ण अर्थ दिखलायी देता है । (मंत्र 6)

 

यज्ञकर्त्ता आज जिसे भग सविताके नामसे पवित्र मंत्रों द्वारा अपने अंदर ग्रहण करना चाह रहे है वह है विश्वव्यापी देव, सत्का वह अधिपति जिससे सब वस्तुएँ सत्यके रूपमें रची गयी हैं । यह वह रचयिता है जिसकी रचना हैं सत्य, जिसका यज्ञ है मानवीय आत्मामें अपने निजी आनंदके, अपने दिव्य और अचूक सुखके, वर्षण द्वारा सत्यकी वृष्टि कर देना । वह सूर्य सविता सत्यके अधिपतिके रूपमें दोंनोंके सम्मुख जाता है, रात्रि और उषाके, अव्यक्त चेतना और व्यक्त चेतनाके, जागृत सत्ता और अवचेतन तथा अतिचेतन सत्ताके, जिनकी पारस्परिक क्रिया हमारी सब अनुभूतियोंको रचती है; और अपनी गतिमें वह किसीको उपेक्षित नहीं करता, कभी असावधान नहीं होता, कभी स्खलको प्राप्त नहीं होता । वह दोनोंके सम्मुख जाता है, अवचेतनकी रात्रिके अंदरसे दिव्य प्रकाशको निकाल लाता है, सचेतनके अनिश्चित या विकृत प्रतिबिम्बोंको उस प्रकाशकी देदीप्यमान किरणोंमें परिवर्तित कर देता है, और सदा ही विचार उचित रूपमें रखा जाता हैं |  सब त्रुटियोंका मूल है अनुचित विनियोग, सत्यका अनुचित रूपमें स्थापन, अनुचित क्रम-प्रदान, अनुचित संबंध, समय और स्थानमें, विषय और क्रममें अनुचित विन्यास । परन्तु सत्यके अधिपतिमें ऐसी कोई त्रुटि, ऐसा कोई स्खलन, ऐसा कोई अनौचित्यपूर्ण स्थापन नहीं होता । (मंत्र 7, 8)

 

सविता सूर्य, जो कि भग है, असीमके और (हमारे अंदर और बाहरके) विरचित लोकोंके बीचमें स्थित होता है । जिन भी वस्तुओंको रचनाशील चेतनाके अंदर उत्पन्न होना है उन सबको वह विज्ञानके अंदर ग्रहण करता है; वहाँ यह उस ज्ञानके द्वारा जो अवतरण करते हुए शब्दका श्रवण और ग्रहण करता है, इन्हें इनके उचित स्थानमें दिव्य लयके साथ स्थापित करता

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है और इस प्रकार वह शब्दको वस्तुओंकी गतिके अंदर प्रेरित कर देता है, आश्रावयति श्ल्लोकेन प्र च सुवाति । जब हमारे अंदर क्रियाशील आनंदकी प्रत्येक रचना, प्रजावत् सौभगम् इस प्रकार वस्तुओंकी त्रुटिरहित लयके साथ ज्ञान द्वारा गृहीत होकर और ठीक-ठीक श्रवणकी जाकर, अव्यक्तमेंसे बाहर निकलती है तब हमारी वह रचना भग सविताकी रचना होती है, और उस रचनाके सब जन्म, हमारे बच्चे, हमारी सन्तानें--प्रज, अपत्य- हो जाती हैं आनंदकी वस्तुएँ, विश्वा वामानि । यह हैं मनुष्यके अंदर भगका कार्य, विश्व-यज्ञमें उसका पूर्ण भाग ।

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